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अग्ने॑ मृ॒ळ म॒हाँ अ॑सि॒ य ई॒मा दे॑व॒युं जन॑म्। इ॒येथ॑ ब॒र्हिरा॒सद॑म् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne mṛḻa mahām̐ asi ya īm ā devayuṁ janam | iyetha barhir āsadam ||

पद पाठ

अग्ने॑। मृ॒ळ। म॒हान्। अ॒सि॒। यः। ई॒म्। आ। दे॒व॒ऽयुम्। जन॑म्। इ॒येथ॑। ब॒र्हिः। आ॒ऽसद॑म्॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:9» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब आठ ऋचावाले नवमें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के सदृश होने से विद्वान् का सत्कार कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशमान ! (यः) जो आप (बर्हिः) उत्तम आसन को (आसदम्) बैठनेवाला (देवयुम्) अपने को विद्वानों की कामना कर (जनम्) प्रसिद्ध विद्वान् को (ईम्) सब प्रकार (आ, इयेथ) प्राप्त होते हो, इससे (महान्) महत्त्व से युक्त (असि) हो इससे हमें (मृळ) सुखी कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष विद्वानों के सङ्ग से विद्या की कामना करता और विद्या को प्राप्त होकर मनुष्य आदिकों को सुख देता है, वही आसन आदि से प्रतिष्ठा देने योग्य होता है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निसादृश्येन विद्वत्सत्कारमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यस्त्वं बर्हिरासदं देवयुं जनमीमा इयेथ तस्मान्महानस्यस्मान् मृळ ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) अग्निरिव प्रकाशमान (मृळ) सुखय (महान्) महत्त्वयुक्तः (असि) (यः) (ईम्) सर्वतः (आ) (देवयुम्) य आत्मनो देवान् कामयते तम् (जनम्) प्रसिद्धं विद्वांसम् (इयेथ) एषि (बर्हिः) उत्तममासनम् (आसदम्) य आसीदति तम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - यः पुरुषो विदुषां सङ्गेन विद्यां कामयते विद्यां प्राप्य मनुष्यादीन् सुखयति स एवाऽऽसनादिना प्रतिष्ठापनीयो भवति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, राजा, प्रजा व विद्वान यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जो पुरुष विद्वानांच्या संगतीने विद्येची कामना करतो व विद्या प्राप्ती करून माणसांना सुख देतो तोच आसन इत्यादी देऊन प्रतिष्ठा करण्यायोग्य आहे. ॥ १ ॥